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दे॒वोऽअ॒ग्निः स्वि॑ष्ट॒कृद्दे॒वमिन्द्र॑मवर्धयत्। स्वि॑ष्टं कु॒र्वन्त्स्वि॑ष्ट॒कृत् स्वि॑ष्टम॒द्य क॑रोतु नो वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य वेतु॒ यज॑ ॥२२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वः। अ॒ग्निः। स्वि॒ष्टकृदिति॑ स्विष्ट॒ऽकृत्। दे॒वम्। इन्द्र॑म्। अ॒व॒र्ध॒य॒त्। स्वि॑ष्ट॒मिति॒ सुऽइ॑ष्टम्। कु॒र्वन्। स्वि॒ष्ट॒कृदिति॑ स्विष्ट॒ऽकृत्। स्वि॑ष्ट॒मिति॒ सुऽइ॑ष्टम्। अ॒द्य। क॒रो॒तु॒। नः॒। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेयस्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। वे॒तु॒। यज॑ ॥२२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:28» मन्त्र:22


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जैसे (स्विष्टकृत्) सुन्दर प्रकार इष्ट का साधक (देवः) उत्तम गुणोंवाला (अग्निः) अग्नि (इन्द्रम्, देवम्) उत्तम गुणोंवाले जीव को (अवर्धयत्) बढ़ावे, यथा जैसे (स्विष्टम्) सुन्दर इष्ट को (कुर्वन्) सिद्ध करता और (स्विष्टकृत्) उत्तम इष्टकारी हुआ अग्नि (स्विष्टम्) अत्यन्त चाहे हुए कार्य को करता है, वैसे (अद्य) आज (नः) हमारे लिए सुख को (करोतु) कीजिए, (वेतु) धन को प्राप्त हूजिए और (वसुधेयस्य) सब द्रव्यों के आधार जगत् के बीच (वसुवने) पदार्थविद्या को चाहते हुए मनुष्य के लिए (यज) दान कीजिए ॥२२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे गुण, कर्म, स्वभावों करके जाना गया, कर्मों में नियुक्त किया अग्नि, अभीष्ट कार्यों को सिद्ध करता है, वैसे विद्वानों को वर्त्तना चाहिए ॥२२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(देवः) दिव्यगुणः (अग्निः) पावकः (स्विष्टकृत्) यः शोभनमिष्टं करोति सः (देवम्) दिव्यगुणम् (इन्द्रम्) जीवम् (अवर्धयत्) वर्धयेत् (स्विष्टम्) शोभनञ्च तदिष्टम् (कुर्वन्) सम्पादयन् (स्विष्टकृत्) उत्तमेष्टकारी (स्विष्टम्) अतिशयेनाभीप्सितम् (अद्य) (करोतु) (नः) अस्मभ्यम् (वसुवने) (वसुधेयस्य) (वेतु) (यज) ॥२२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यथा स्विष्टकृद् देवोऽग्निरिन्द्रं देवमवर्धयद्, यथा च स्विष्टं कुर्वन् स्विष्टकृत् सन्नग्निः स्विष्टं करोति, तथाऽद्य नः सुखं करोतु, धनं वेतु वसुधेयस्य वसुवने यज च ॥२२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा गुणकर्मस्वभावैर्विज्ञातः कर्मसु संप्रयुक्तोऽग्निरभीष्टानि कार्याणि साध्नोति तथा विद्वद्भिर्वर्तितव्यम् ॥२२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा उत्तम गुण, कर्म स्वभावयुक्त अग्नी इष्ट कार्य सिद्ध करतो तसे विद्वानांनी वागावे.